Chandigarh
श्री गुरु तेग बहादुर जी की शहादत की इतिहास में कोई बराबरी नहीं है। वह एक महान विचारक, योद्धा, पथिक व आध्यात्मिक व्यक्तित्व के धनी थे। उन्होंने धर्म, मातृभूमि और जनता के अधिकारों की रक्षा के लिए सर्वस्व न्यौछावर किया इसलिए उन्हें ‘‘हिंद दी चादर’’ का ताज पहनाया गया है।
श्री गुरु तेग बहादुर जी के बलिदान के महत्व को जानने के लिए सिख धर्म के इतिहास में उतरना होगा। श्री गुरु नानक देव जी ने उस समय सिख धर्म की स्थापना की जब समाज, जाति आधारित अत्याचारों, बहिष्कार, भेदभाव और छुआछूत तथा धर्मान्तरण की चपेट में था। इनके साथ-साथ समाज में अंधविश्वास जैसी और कई बुराईयां थी, जो समाज को खोखला कर रही थी। उस समय गुरू नानक देव जी ने देश-विदेश में जाकर लोगों को सामाजिक कुरितियों के खिलाफ जागृत किया था। श्री गुरू तेग बहादुर ने श्री गुरू नानक देव जी व सभी गुरूओं के प्रकाश और दिव्यता को आगे बढ़ाते हुए गुरू परम्परा के अनुरूप ही धर्म व देश की रक्षा के लिए आवाज बुलन्द की और बलिदान दिया।
आज उनके शहीदी दिवस पर पूरा देश उन्हें नमन कर रहा है। देश आज आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है। श्री गुरु तेग बहादुर जी ने 17वीं शताब्दी में ही धर्म की आजादी के लिए शहादत देकर प्रत्येक देशवासी के दिलों-दिमाग में निडरता से आजाद जीवन जीने का बीज बो दिया था।
महान संत शिरोमणि, योद्धा व नौवें सिख गुरु श्री गुरु तेग बहादुर जी का जन्म 21 अप्रैल 1621 में पंजाब के अमृतसर नगर में हुआ था। इन्होंने चकनानकी नामक स्थान को स्थापित किया, जिसका बाद में दसवें गुरु श्री गुरु गोबिंद जी ने आनंदपुर साहिब के नाम से विस्तार किया। श्री गुरु तेग बहादुर जी के बचपन का नाम त्यागमल था। मात्र 14 वर्ष की आयु में अपने पिता के साथ मुगलों के हमले के खिलाफ हुए युद्ध में उनकी वीरता से प्रभावित होकर उनके पिता ने उनका नाम त्यागमल से तेग बहादुर (तलवार के धनी) रख दिया। युद्धस्थल में भीषण रक्तपात से श्री गुरु तेग बहादुर जी के वैरागी मन पर गहरा प्रभाव पड़ा और उनका मन आध्यात्मिक चिंतन की ओर हुआ। उन्होंने 20 वर्ष तक बाबा बकाला साहिब में साधना की।
तत्कालीन शासक औरंगजेब के दरबार में एक विद्वान पंडित आकर हर रोज औरंगजेब को गीता श्लोक पढ़ता और उसका अर्थ सुनाता था, पर वह पंडित गीता में से कुछ श्लोक छोड़ दिया करता था। एक दिन पंडित बीमार पड़ गया और औरंगजेब को गीता सुनाने के लिए पंडित ने अपने बेटे को भेज दिया परन्तु उसे यह बताना भूल गया कि उसे किन-किन श्लोकों का अर्थ राजा के सामने नहीं करना है।
पंडित के बेटे ने जाकर औरंगजेब को पूरी गीता का अर्थ सुना दिया। औरंगजेब को किसी दूसरे धर्म की प्रशंसा व सच्ची शिक्षाएं सहन नहीं थी। औरंगजेब ने कश्मीर के गवर्नर इफ्तिकार खाँ (जालिम खाँ) को कहा कि सभी पंडितों को इस्लाम धर्म अपनाने के लिए कहा जाए। गवर्नर ने कश्मीरी पंडितों को इस्लाम धर्म ग्रहण करने के लिए कहा यदि वे ऐसा नहीं करते तो सभी को मौत के घाट उतारा जाएगा। इसके बाद सभी पंडित गुरु तेग बहादुर के पास गए और सारा वृत्तांत सुनाया।
गुरु तेग बहादुर जी ने पंडितों से कहा कि आप जाकर जालिम खां से कह दें कि यदि गुरु तेग बहादुर ने इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिया तो उनके बाद हम भी ईस्लाम धर्म ग्रहण कर लेंगे और यदि आप गुरु तेगबहादुर जी से इस्लाम धारण नहीं करवा पाए तो हम भी इस्लाम धर्म धारण नहीं करेंगे। यह बात औरंगजेब तक पहुंची तो औरंगजेब क्रोधित हो गया और उसने गुरु तेग बहादुर को बंदी बनाने के लिए आदेश दे दिए।
1665 में गुरु तेग बहादुर व उनके तीन शिष्यों भाई मतिदास, भाई दयालदास तथा भाई सती दास को बंदी बनाया गया। जेल में भी काजी ने गुरु तेग बहादुर जी को प्रस्ताव दिया कि आप इस्लाम स्वीकार करके ही अपनी जान बचा सकते हैं, नहीं तो आपका सिर कलम कर दिया जाएगा। उस समय ध्यानरत गुरु जी ने सिर हिलाकर इस्लाम स्वीकार करने से इनकार कर दिया।
जब यह खबर औरंगजेब तक पहुंची तो वह आग बबूला हो गया। गुरु तेग बहादुर को डराकर इस्लाम स्वीकार करवाने के लिए उनके तीनों शिष्यों भाई मतिदास, भाई दयाल दास तथा भाई सती दास को उनकी आंखों के सामने अलग-अलग तरीके से मार दिया गया और कहा कि उनका भी यही हाल होने वाला है लेकिन गुरु तेग बहादुर अपने वचन से टस से मस नहीं हुए। उन्होंने श्रीमद्भागवत गीता के श्लोक –
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।
से प्रेरणा लेकर धर्म की रक्षा के लिए कहा कि मैं सिख हूँ और सिख ही रहुंगा। इसके बाद 1675 में आततायी शासक औरंगजेब ने दिल्ली के चांदनी चौक में गुरु तेग बहादुर का शीश काट दिया। आज उसी स्थान पर गुरुद्वारा शीशगंज है, जो हिन्द-सिख भाईचारे का जीता-जागता प्रमाण है। शीश काटने के बाद उनका सिर भाई जैता अपने घर ले आए तब भाई जैता की पत्नी ने गुरु जी का शीश उनके बेटे गोबिन्द राय को सौंपने के लिए कहा। भाई जैता ने श्री कीरतपुर साहिब जी पहुंचकर गोबिन्द राय को श्री गुरू तेग बहादुर साहिब जी का शीश समर्पित किया। इसके बाद आनन्दपुर साहिब में दाह संस्कार किया गया।
संसार को ऐसे बलिदानियों से प्रेरणा मिलती है, जिन्होंने जान दे दी परंतु सत्य-अहिंसा का मार्ग नहीं छोड़ा। गुरु जी नवम पातशाही श्री गुरु तेग बहादुर जी के बलिदान के बाद उनके सुपुत्र श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी दशम पातशाही के गुरु साहिब बने, जो एक महान योद्धा, कवि तथा दार्शनिक थे। गुरु तेग बहादुर जी ने कहा था कि धर्म एक मजहब नहीं, धर्म एक कर्तव्य है। आदर्श जीवन का रास्ता है। आज हमारे लिए गुरू जी की शिक्षाएं, त्याग, बलिदान एक धरोहर हैं। इस धरोहर को बचाने व सहज कर रखना ही गुरू जी के प्रति सच्ची श्रद्धा होगी।
आज की युवा पीढ़ी को जरूरत है कि वे ऐसे युग-पुरूष श्री गुरू तेग बहादुर जी के जीवन चरित्र व बलिदान से प्रेरणा लेकर मानवीय एवं नैतिक मूल्यों के साथ जीवन में संस्कारों को ग्रहण कर आगे बढ़े जिससे देश फिर से विश्व गुरू कहलाएगा।
श्री गुरु तेग बहादुर जी के बलिदान के महत्व को जानने के लिए सिख धर्म के इतिहास में उतरना होगा। श्री गुरु नानक देव जी ने उस समय सिख धर्म की स्थापना की जब समाज, जाति आधारित अत्याचारों, बहिष्कार, भेदभाव और छुआछूत तथा धर्मान्तरण की चपेट में था। इनके साथ-साथ समाज में अंधविश्वास जैसी और कई बुराईयां थी, जो समाज को खोखला कर रही थी। उस समय गुरू नानक देव जी ने देश-विदेश में जाकर लोगों को सामाजिक कुरितियों के खिलाफ जागृत किया था। श्री गुरू तेग बहादुर ने श्री गुरू नानक देव जी व सभी गुरूओं के प्रकाश और दिव्यता को आगे बढ़ाते हुए गुरू परम्परा के अनुरूप ही धर्म व देश की रक्षा के लिए आवाज बुलन्द की और बलिदान दिया।
आज उनके शहीदी दिवस पर पूरा देश उन्हें नमन कर रहा है। देश आज आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है। श्री गुरु तेग बहादुर जी ने 17वीं शताब्दी में ही धर्म की आजादी के लिए शहादत देकर प्रत्येक देशवासी के दिलों-दिमाग में निडरता से आजाद जीवन जीने का बीज बो दिया था।
महान संत शिरोमणि, योद्धा व नौवें सिख गुरु श्री गुरु तेग बहादुर जी का जन्म 21 अप्रैल 1621 में पंजाब के अमृतसर नगर में हुआ था। इन्होंने चकनानकी नामक स्थान को स्थापित किया, जिसका बाद में दसवें गुरु श्री गुरु गोबिंद जी ने आनंदपुर साहिब के नाम से विस्तार किया। श्री गुरु तेग बहादुर जी के बचपन का नाम त्यागमल था। मात्र 14 वर्ष की आयु में अपने पिता के साथ मुगलों के हमले के खिलाफ हुए युद्ध में उनकी वीरता से प्रभावित होकर उनके पिता ने उनका नाम त्यागमल से तेग बहादुर (तलवार के धनी) रख दिया। युद्धस्थल में भीषण रक्तपात से श्री गुरु तेग बहादुर जी के वैरागी मन पर गहरा प्रभाव पड़ा और उनका मन आध्यात्मिक चिंतन की ओर हुआ। उन्होंने 20 वर्ष तक बाबा बकाला साहिब में साधना की।
तत्कालीन शासक औरंगजेब के दरबार में एक विद्वान पंडित आकर हर रोज औरंगजेब को गीता श्लोक पढ़ता और उसका अर्थ सुनाता था, पर वह पंडित गीता में से कुछ श्लोक छोड़ दिया करता था। एक दिन पंडित बीमार पड़ गया और औरंगजेब को गीता सुनाने के लिए पंडित ने अपने बेटे को भेज दिया परन्तु उसे यह बताना भूल गया कि उसे किन-किन श्लोकों का अर्थ राजा के सामने नहीं करना है।
पंडित के बेटे ने जाकर औरंगजेब को पूरी गीता का अर्थ सुना दिया। औरंगजेब को किसी दूसरे धर्म की प्रशंसा व सच्ची शिक्षाएं सहन नहीं थी। औरंगजेब ने कश्मीर के गवर्नर इफ्तिकार खाँ (जालिम खाँ) को कहा कि सभी पंडितों को इस्लाम धर्म अपनाने के लिए कहा जाए। गवर्नर ने कश्मीरी पंडितों को इस्लाम धर्म ग्रहण करने के लिए कहा यदि वे ऐसा नहीं करते तो सभी को मौत के घाट उतारा जाएगा। इसके बाद सभी पंडित गुरु तेग बहादुर के पास गए और सारा वृत्तांत सुनाया।
गुरु तेग बहादुर जी ने पंडितों से कहा कि आप जाकर जालिम खां से कह दें कि यदि गुरु तेग बहादुर ने इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिया तो उनके बाद हम भी ईस्लाम धर्म ग्रहण कर लेंगे और यदि आप गुरु तेगबहादुर जी से इस्लाम धारण नहीं करवा पाए तो हम भी इस्लाम धर्म धारण नहीं करेंगे। यह बात औरंगजेब तक पहुंची तो औरंगजेब क्रोधित हो गया और उसने गुरु तेग बहादुर को बंदी बनाने के लिए आदेश दे दिए।
1665 में गुरु तेग बहादुर व उनके तीन शिष्यों भाई मतिदास, भाई दयालदास तथा भाई सती दास को बंदी बनाया गया। जेल में भी काजी ने गुरु तेग बहादुर जी को प्रस्ताव दिया कि आप इस्लाम स्वीकार करके ही अपनी जान बचा सकते हैं, नहीं तो आपका सिर कलम कर दिया जाएगा। उस समय ध्यानरत गुरु जी ने सिर हिलाकर इस्लाम स्वीकार करने से इनकार कर दिया।
जब यह खबर औरंगजेब तक पहुंची तो वह आग बबूला हो गया। गुरु तेग बहादुर को डराकर इस्लाम स्वीकार करवाने के लिए उनके तीनों शिष्यों भाई मतिदास, भाई दयाल दास तथा भाई सती दास को उनकी आंखों के सामने अलग-अलग तरीके से मार दिया गया और कहा कि उनका भी यही हाल होने वाला है लेकिन गुरु तेग बहादुर अपने वचन से टस से मस नहीं हुए। उन्होंने श्रीमद्भागवत गीता के श्लोक –
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।
से प्रेरणा लेकर धर्म की रक्षा के लिए कहा कि मैं सिख हूँ और सिख ही रहुंगा। इसके बाद 1675 में आततायी शासक औरंगजेब ने दिल्ली के चांदनी चौक में गुरु तेग बहादुर का शीश काट दिया। आज उसी स्थान पर गुरुद्वारा शीशगंज है, जो हिन्द-सिख भाईचारे का जीता-जागता प्रमाण है। शीश काटने के बाद उनका सिर भाई जैता अपने घर ले आए तब भाई जैता की पत्नी ने गुरु जी का शीश उनके बेटे गोबिन्द राय को सौंपने के लिए कहा। भाई जैता ने श्री कीरतपुर साहिब जी पहुंचकर गोबिन्द राय को श्री गुरू तेग बहादुर साहिब जी का शीश समर्पित किया। इसके बाद आनन्दपुर साहिब में दाह संस्कार किया गया।
संसार को ऐसे बलिदानियों से प्रेरणा मिलती है, जिन्होंने जान दे दी परंतु सत्य-अहिंसा का मार्ग नहीं छोड़ा। गुरु जी नवम पातशाही श्री गुरु तेग बहादुर जी के बलिदान के बाद उनके सुपुत्र श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी दशम पातशाही के गुरु साहिब बने, जो एक महान योद्धा, कवि तथा दार्शनिक थे। गुरु तेग बहादुर जी ने कहा था कि धर्म एक मजहब नहीं, धर्म एक कर्तव्य है। आदर्श जीवन का रास्ता है। आज हमारे लिए गुरू जी की शिक्षाएं, त्याग, बलिदान एक धरोहर हैं। इस धरोहर को बचाने व सहज कर रखना ही गुरू जी के प्रति सच्ची श्रद्धा होगी।
आज की युवा पीढ़ी को जरूरत है कि वे ऐसे युग-पुरूष श्री गुरू तेग बहादुर जी के जीवन चरित्र व बलिदान से प्रेरणा लेकर मानवीय एवं नैतिक मूल्यों के साथ जीवन में संस्कारों को ग्रहण कर आगे बढ़े जिससे देश फिर से विश्व गुरू कहलाएगा।